आजादी के बाद जब भारत ने स्वतंत्र रूप से अपने को विकसित करने का प्रयास शुरू किया तब मिश्रित मगर समाजवादी नजरिया अर्थ व्यवस्था के लिए रखा गया। संविधान में भी समाजवाद, धर्म निरपेक्षता को तरजीह बाबा साहेब अंबेडकर ने दी।
पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने अपने सहयोगियों के साथ सार्वजनिक क्षेत्र में बड़े बड़े उद्योग लगाने शुरू किये। जिससे विकास तो हुआ ही साथ में लोगों को प्रचुर मात्रा में रोजगार भी मिला। देश को लगा हमने देश के लिए उद्योग लगाये हैं। बड़े पुल, रेलवे, एयरपोर्ट, बंदरगाह सहित अनेक परिवहन के साधनों का सार्वजनिक क्षेत्र में निर्माण हुआ। जिन पर हर देशवासी गर्व करता था और यही राष्ट्रीय भावना थी। इसे ही राष्ट्रवाद का समर्थन माना जाता था।
सार्वजनिक क्षेत्र को बाद में इंदिरा गांधी के शासन ने मजबूत किया। बैंकों का राष्ट्रीयकरण इस बात का बड़ा उदाहरण है। बैंक विश्वसनीय बने और विपुल रोजगार इससे पैदा हुए।
मगर ये सब बातें अब कहानियों की तरह लगती है। आर्थिक उदारीकरण के नाम पर नरसिंह राव के शासन में निजीकरण ने प्रथम बार प्रवेश किया। उसके बाद यूपीए के शासन में ये परवान चढ़ा। अब के शासन में ये चरम पर पहुंचा।
रेल के बड़े हिस्से को निजी हाथों में दिया गया। पेट्रोलियम पदार्थ भी कम्पनियों के अधिकार क्षेत्र में आ गये। एडीआई का प्रवेश हर क्षेत्र में हुआ। निजीकरण विस्तार पाता गया।
थोड़े दिन पहले ही एयर इंडिया भी निजी हाथों में चली गई। वर्षों पहले सरकार ने इसे निजी हाथों से खरीदा था। तभी तो नागरिक उड्डयन मंत्री बनना गर्व की बात हुआ करता था। इस मंत्रालय और मंत्री का वजूद अब भी है मगर कोई भी हवाई सेवा सरकार के पास नहीं है। ये सोचकर ही आश्चर्य होता है।
रविवार रात 12 बजे जयपुर का एयरपोर्ट भी सार्वजनिक क्षेत्र में नहीं रहा। करार तो पहले ही हो गया था, बीती रात इसे निजी हाथों को दे दिया गया। सोमवार सुबह से निजीकरण को फिर विस्तार मिला है और सोच के लिए नया विषय खुल गया। अब तो निजीकरण पर आम जनता और राजनीतिक दलों को खुलकर चर्चा करनी चाहिए। तभी महंगाई, बेरोजगारी के असल मुद्दे केंद्र में आयेंगे। जन जागृति होगी और आर्थिक, सामाजिक समस्याओं के निदान को दिशा मिलेगी। समय की इस गंभीरता को नहीं पहचाना गया तो समय फिर संभलने का अवसर नहीं देगा।
– मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘
वरिष्ठ पत्रकार