श्रीडूंगरगढ़ टाइम्स 26 दिसंबर 2021। एक साल के सफल किसान आंदोलन के बाद अब पंजाब और यूपी के आगामी विधान सभा चुनाव को लेकर किसान फिर केंद्र में है। किसान संगठन चुनाव लड़े, न लड़ें के कारण चर्चा हो रही है। किसान इन दोनों राज्यों में बड़ा वोट बैंक है, तभी तो केंद्र सरकार को कृषि कानूनों पर यूटर्न लेना पड़ा। अन्य मांगों पर भी कड़ाई छोड़नी पड़ी।
मगर पंजाब के किसान संगठनों ने विधान सभा चुनाव लड़ने की घोषणा कर एक नई बहस को जन्म दे दिया है। इन संगठनों के चुनाव लड़ने की घोषणा करते ही भाजपा को बोलने का मौका मिल गया है। जबकि एमएसपी पर गारंटी कानून, लखीमपुर खीरी की मांगें आदि अब भी अनिर्णीत है, केवल समिति बनी है। चुनाव लड़ने की बात उस मजबूत आंदोलन को कमजोर करेगी। ये स्वाभाविक बात है।
क्योंकि जैसे ही चुनाव लड़ने की बात कही गई तो दूसरी तरफ केंद्रीय कृषि मंत्री का सुर बदल गया। उनका कल का कृषि कानूनों पर बयान एक संकेत है, जिसे किसानों और किसान संगठनों को समझना चाहिए।
कल भरतपुर आये किसान आंदोलन के नेता राकेश टिकैत इस स्थिति को भांप रहे हैं। तभी तो उन्होंने कहा, किसान किंग मेकर है। उसे इसी भूमिका में रहना चाहिए। पंजाब में किसानों के चुनाव लड़ने की बात पर वे सीधे तो कुछ नहीं बोले मगर किंग मेकर बनने का कहकर उन्होंने अपने संकेत दे दिए।
टिकैत पर भी आंदोलन के दौरान चुनाव लड़ने के आरोप भाजपा नेताओं ने लगाए थे। उसकी वजह थी, क्यूंकि वे पहले चुनाव लड़ चुके थे। तभी तो उनको प्रायः रोज मीडिया के सामने सफाई देनी पड़ती थी कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे। हालही में अखिलेश यादव ने जब राकेश टिकैत को चुनाव लड़ने का आमंत्रण दिया तो वे खूबसूरती से उनके प्रस्ताव को टाल गये। अब किंग मेकर का बयान देकर और खुलासा कर दिया कि चुनाव नहीं लड़ेंगे।
किसानों के इन बयानों की तफ़सील से समीक्षा होनी चाहिए, फिर कोई निर्णय करना चाहिए। ये निर्णय आंदोलन के दौरान की तरह खुद किसानों को ही करने होंगे। यदि इस मसले पर भी भिन्न राय रही तो सत्ता फायदा उठाने से नहीं चुकेगी। उसे बिखराव व मत भिन्नता का लाभ मिलेगा और हर सत्ता लाभ लेने से नहीं चूकती।
किसान एक बार फिर चर्चा में है। दो मार्ग है, जिसके अपने लाभ – हानि है। उनको खुद अपना मार्ग तय करना है। उसमें यदि देरी हुई तो वो भी फायदा नहीं देगी।
– मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘
वरिष्ठ पत्रकार