तमिलनाडू में भाषा के मुद्दे पर एक बार फिर सियासत गर्मा गई है। राज्यपाल के आदेश के विरोध में सत्ताधारी दल द्रमुक तो उतरा ही है,वहां की भाजपा भी निर्णय का विरोध कर रही है। राज्यपाल ने विवि को हिंदी उपयोग का कहा, राजनीति शुरू हो गई। ये राज्य भाषा के मसले पर पहले भी आंदोलन कर चुका है। इस राज्य में राजनीति के केंद्र में भाषा सदैव रही है। द्रमुक, अन्ना द्रमुक सहित सभी राष्ट्रीय पार्टियों की इकाईयां यहां यही रुख रखती है।
विरोध के चलते सीएम को कहना पड़ा है कि राज्य अपनी अलग भाषा नीति बनायेगा। भाषा के महत्त्व को इस राज्य से समझा जा सकता है।
भाषा से संस्कृति बचती है और संस्कृति व्यक्ति की पहचान होती है। भाषा खत्म तो संस्कृति खत्म, वहां रहने वाले आदमी की अस्मिता खतरे में, ये बात विद्वान वर्षों से कहते आ रहे हैं। जबकि भाषा और संस्कृति ही समाज के विकास का मूल आधार है। भाषा की महत्ता पर अनेक देशों में भी आंदोलन हुए हैं और जीत भाषा की हुई है। करोड़ों लोगों की अस्मिता अपनी भाषा से जुड़ी होती है तो आंदोलित होना स्वाभाविक है। जो भाषा और संस्कृति का महत्त्व समझता है, वही मुक्कमिल इंसान होता है। ये अनेक बार साबित हुआ है। भाषा की उपेक्षा सहन करने की बात ही नहीं है।
आज 12 करोड़ से अधिक लोग देश विदेश में राजस्थानी भाषा बोलते हैं। नेपाल ने इस भाषा को मान्यता भी दे रखी है। भाषा के कारण ही राजस्थानी की उज्ज्वल संस्कृति दुनिया के सामने खास पहचान बना सकी है। राजस्थानी भाषा की मिठास और यहां की शौर्य, सद्भाव की संस्कृति सबको भाती है। मगर राजस्थानी भाषा अब भी अपनी मान्यता के लिए तरस रही है। 12 करोड़ से अधिक लोगों की जुबान पर ताला लगा हुआ है। अपनी भाषा की बेड़ियां तोड़ने के लिए ये लोग प्रयास भी कर रहे हैं, मगर सरकारें सुन नहीं रही। मौन साधे है।
2003 में राजस्थान विधान सभा ने सर्व सम्मति से राजस्थानी भाषा को मान्यता देने का प्रस्ताव पारित कर केंद की सरकार को भेजा, मगर वो अब भी ठंडे बस्ते में पड़ा है। इससे ज्यादा भाषा की उपेक्षा हो ही नहीं सकती। 25 लोक सभा में सांसद है, 10 राज्य सभा में है। इसके अलावा केंद्रीय मंत्रिमंडल में राजस्थानी सांसद है। यहां तक कि वर्तमान में तो लोक सभा अध्यक्ष तक राजस्थान के है। इसके बावजूद समृद्ध भाषा राजस्थानी आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं है। अपनी भाषा की मान्यता की मांग करना किसी दूसरी भाषा का लेश मात्र भी विरोध नहीं है, ये सुस्पष्ट बात है। फिर भी राजस्थानी भाषा को उपेक्षा झेलनी पड़ रही है। तमिलनाडू के परिपेक्ष्य में ये देखें तो ये राजस्थानियों के लिए खेदजनक है। सरकार के लिए भी अच्छी बात नहीं मानी जा सकती। जबकि केंद सरकार का राजनीतिक दल भाजपा तमिलनाडू में वहां की भाषा की लड़ाई में साथ है।
राज्य सरकार भी चाहे तो राजस्थानी को दूसरी राज भाषा का दर्जा देकर राहत दे सकती है। इससे केंद्र सरकार पर भी दबाव बनेगा, मगर सर्व सम्मति का प्रस्ताव पारित करने के बाद भी राज्य सरकार ये निर्णय नहीं कर रही। इसे भी उचित नहीं कहा जा सकता। राजस्थानियों को अपनी अस्मिता बचाने के लिए भाषा के मुद्दे पर गम्भीर होने की जरूरत है। यदि अब नहीं चेते तो राजस्थानी भाषा, संस्कृति का बड़ा नुकसान हो जायेगा। राजनीति को भी ये स्थायी व्यवहार बनाना चाहिए कि वो भाषा, संस्कृति के साथ राजनीति न करे। आज की राजनीति में सरकारें दबाव पर निर्णय लेती है, ये 12 करोड़ से अधिक राजस्थानी बोलने वालों को भी समझना जरूरी है। भाषा नहीं, संस्कृति नहीं तो इंसान नहीं।
– मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘
वरिष्ठ पत्रकार