चुनावी दौर की ‘ हेट स्पीच ‘ पर रोक लगे, सबके प्रयास जरूरी

श्रीडूंगरगढ़ टाइम्स 30 अप्रैल 2022।  पिछले कुछ समय से हेट स्पीच ने न केवल राजनेताओं को अपितु आम आदमी को भी खासा सकते में डाला हुआ है। माननीय न्यायालय और चुनाव आयोग को भी इन मामलों का सामना करना पड़ रहा है। ये मसला अब तो बहुत विस्तार ले चुका है और सदा खबरों की सुर्खियों में रहता है।
लोकतंत्र की भाषा में यदि कहें तो अब राजनीति में पहले वाली बात नहीं रही, आरोप तो अंधाधुंध लगाये ही जा रहे हैं मगर उपमाएं भी अजीबोगरीब दी जा रही है। किस नेता को कब क्या बता दिया जाये, कोई भरोसा ही नहीं। अनेक मामलों में चुनाव प्रचार के समय तो गम्भीर आरोप लगा दिए जाते हैं मगर जब संबंधित पक्ष वाद दायर करता है तो क्षमा मांग ली जाती है। ये नाटक बारबार दौहराया जाता है। इसी तरह के मामलों की शिकायतों का चुनाव आयोग के पास अंबार लगा हुआ है।
कई मामले तो अब शिकायत का रूप भी नहीं ले पाते, क्योंकि इसे राजनीति की एक स्थायी बुराई मान लिया गया है। सुनकर चुप रहने का स्वभाव भी हो गया है। अखबारों में भले ही हेट स्पीच की सुर्खियां बन जाये, मगर शिकायत नहीं होती। सोशल मीडिया और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में हेट स्पीच वाइरल हो जाये, मगर न्यायिक शिकायत नहीं होती।
हेट स्पीच का बढ़ना इस बात को प्रमाणित करता है कि अब राजनीति में शालीनता और धैर्य नहीं रहा। बस, जितना ध्येय हो गया है। लोग चुनाव भले ही जीत जाये, मगर उच्च मानदंडों वाला लोकतंत्र तो हार ही जाता है। इसे स्वस्थ लोकतंत्र के लिए बड़ी बीमारी माना जाना चाहिए।
हेट स्पीच इतनी अधिक है मगर पिछले 16 चुनाव में केवल 130 शिकायतें ही हो पाई है जो इस बात का प्रतीक है कि ये बीमारी अब लाइलाज मान ली गयी है। 2019 के आम चुनाव और 15 विधान सभा चुनावों में इतना अधिक हेट स्पीच का बोलबाला रहा है, ये हर कोई जानता है मगर शिकायतें नहीं हो रही।
अब जनता ही इस बीमारी से उकता गयी है और इलाज तलाश रही है। मगर असली चिंतन तो राजनीतिक दलों को करना चाहिए। उन्हें ही अपने नेताओं, कार्यकर्ताओं पर रोक लगाने का उपक्रम करना चाहिए। नहीं तो दलों का विश्वास जनता से उठ जाएगा। सोशल मीडिया ने भी इस बीमारी को बढ़ाया है, उस पर लगाम के प्रयास सरकार को करने चाहिए। प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री किसी दल के नहीं होते, संवैधानिक पद वाले होते हैं। इस सीमा को तो माना जाना ही चाहिए। हेट स्पीच आज की राजनीति की ज्वलंत समस्या है। इसके निदान के लिए राजनीतिक दलों और सरकारों को कड़ें कानून बनाने चाहिए नहीं तो स्तर बहुत नीचे चला जायेगा। लोकतंत्र को ही खतरे में डाल देगा।
– मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘
वरिष्ठ पत्रकार