उत्तर प्रदेश से होकर दिल्ली का राज गुजरता है, ये उक्ति आजादी के 75 साल बाद भी सही साबित हो रही है। आने वाले विधान सभा चुनाव को लेकर यूपी में सभी दल अब हिंदुत्व की राह पर आ गये हैं। सभी दलों ने संविधान के धर्म निरपेक्षता, समता के मूल सिद्धांत को जैसे भूला दिया है।
भाजपा तो अयोध्या और राम मंदिर के सहारे चल ही रही है वहीं समाजवादी पार्टी ने भी कुछ इसी तरह की राह पकड़ ली है। मंगलवार को पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने कानपुर से रथ यात्रा शुरू की है। ये यात्रा अखिलेश ने गंगा दर्शन के बाद शुरू की और भाजपा की केंद्र व यूपी सरकार ने गंगा को धोखा दिया है। उन्होंने चित्रकूट धाम और विंध्याचल माता के दर्शन भी चुनावी अभियान शुरू करने से पहले किये। अखिलेश के चाचा शिवपाल यादव भी वृंदावन में श्रीकृष्ण दर्शन के बाद ही चुनावी समर में उतरे।
कांग्रेस की कमान प्रियंका गांधी के पास है। वे तो जहां भी जाती है, मंदिर में माथा टेकना नहीं भूलती। माथे पर तिलक, गले में रुद्राक्ष तो हाथ में भी रुद्राक्ष की माला हर चुनावी कार्यक्रम में नजर आती है। कांग्रेस का एक जमाने में ब्राह्मण वोट बैंक था जो छिटक गया, उसे वापस लाने की कवायद करती प्रियंका नजर आ रही है।
बसपा भी धर्म के रंग में रंगी नजर आ रही है। बसपा प्रमुख मायावती के भाषणों में हिंदुत्व पर जोर रहता है। अपने चुनावी अभियान के दौरान वे घोषणा कर चुकी है कि अयोध्या, काशी और मथुरा आने वाले धर्म भिरूओं के लिए वे शासन आने पर विशेष प्रबंध करेगी। बसपा के महासचिव सतीश मिश्रा भी लगातार धार्मिक स्थलों की यात्रा पर है। आम आदमी पार्टी के संजय सिंह, मनीष सिसोदिया भी अयोध्या, गंगा से चुनावी बिगुल बजा चुके हैं।
सपा, बसपा ने तो कांग्रेस की तरह ब्राह्मण वोट को प्रभावित करने के लिए सम्मेलन भी किये हैं। योगी शासन से नाराज ब्राह्मण पर सभी दलों की निगाहें है, इसी कारण धर्म का बोलबाला चुनाव में ज्यादा दिख रहा है।
दूसरी तरफ ओवैसी अपने चिरपरिचित अंदाज में मुस्लिम मतदाता को लामबंद करने का अभियान भी अयोध्या से आरम्भ कर चुके हैं। ओवैसी यदि मुस्लिम मत लेते हैं तो सभी दलों का राजनीतिक समीकरण गड़बड़ाता है, भाजपा उससे थोड़ी राहत महसूस करेंगी। इसलिए यहां भी धर्म का प्रभाव साफ दिख रहा है।
चुनाव से पहले धर्म की राह सभी दलों ने पकड़ी है जिससे ये तो तय है कि आम आदमी के मुद्दे चुनाव के केंद्र में नहीं रह पायेंगे जो चिंता की बात है। अलबत्ता, किसान आंदोलन जरूर पूरा चुनावी गणित बिगाड़ने में जुटा है।
कोरोना के दौरान जनता को हुई तकलीफ, बेरोजगारी, अपराध, सामाजिक दुराव जैसे जरुरी मुद्दे धर्म की छांव में कमजोर पड़ते नजर आ रहे हैं। राजनीतिक दल दूसरे दलों में तोड़फोड़ भी जातीय गणित ध्यान में रखकर कर रहे हैं। लोकतंत्र और संविधान में आस्था रखने वाले यदि इस हालत से चिंतित हो रहे हैं तो उनकी चिंता वाजिब है। 75 साल बाद भी विकास, जरूरत के आधार पर चुनाव न होकर धर्म के समीकरण से हो तो हर वोटर को आत्मावलोकन की जरूरत है।
– मधु आचार्य ‘ आशावादी ‘
वरिष्ठ पत्रकार